8811
तुम राहमें चुप-चाप,
ख़ड़े हो तो ग़ए हो...
क़िस क़िसक़ो बताओग़े क़ि,
घर क़्यूँ नहीं ज़ाते.......?
अमीर क़ज़लबाश
8812रोने ने मिरे सैक़ड़ों घर,ढा दिये लेक़िन...क़्या राह तिरे क़ूचेक़ी,हमवार निक़ाली.......सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
8813
क़िस दिल-आवाराक़ी,
मय्यत घरसे निक़ली हैं अज़ीज़ ;
शहरक़ी आबाद राहें,
आज़ वीराँ हो ग़ईं ll
अज़ीज़ लख़नवी
8814हटाए थे ज़ो,राहसे दोस्तोंक़ी...वो पत्थर मिरे घरमें,आने लग़े हैं...!ख़ुमार बाराबंक़वी
8815
क़िया दिवानोंने तिरे,
क़ूच हैं बस्तीसे क़िया...
वर्ना सुनसान हों राहें,
निघरोंक़े होते.......
जौन एलिया