9311
मिरे सारे हर्फ़,
तमाम हर्फ़ अज़ाब थे...
मिरे क़म-सुख़नने,
सुख़न क़िया तो ख़बर हुई...
इफ़्तिख़ार आरिफ़
9312ज़ब अंज़ुमन,तवज़्ज़ोह-ए-सद-ग़ुफ़्तुगूमें हो ;मेरी तरफ़ भी,इक़ निग़ह-ए-क़म-सुख़न पड़े llमज़ीद अमज़द
9313
अहल-ए-ज़रने देख़क़र,
क़म-ज़रफ़ी-ए-अहल-ए-क़लम...
हिर्स-ए-ज़रक़े हर तराज़ूमें,
सुख़न-वर रख़ दिए.......
बख़्श लाइलपूरी
9314सोचा था क़ि,उस बज़्ममें ख़ामोश रहेंगे...मौज़ू-ए-सुख़न बनक़े,रहीं क़म-सुख़नी भी.......मोहसिन भोपाली
9315
वो क़म-सुख़न था मग़र,
ऐसा क़म-सुख़न भी न था...
क़ि सच हीं बोलता था,
ज़ब भी बोलता था बहुत...!
अख़्तर होशियारपुरी