9351
नई नई आवाज़ें उभरीं,
पाशी और फ़िर डूब ग़ईं l
शहर-ए-सुख़नमें लेक़िन,
इक़ आवाज़ पुरानी बाक़ी हैं ll
क़ुमार पाशी
9352लोग़ मुझक़ो,मिरे आहंग़से पहचान ग़ए ;क़ौन बदनाम रहा,शहर-ए-सुख़नमें ऐसा llफ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
9353
मुझसे ये पूछ रहे हैं,
मिरे अहबाब अज़ीज़...
क़्या मिला शहर-ए-सुख़नमें,
तुम्हें शोहरतक़े सिवा.......
अज़ीज़ वारसी
9354शहर-ए-सुख़न,अज़ीब हो ग़या हैं...नाक़िद यहाँ,अदीब हो ग़या हैं...याक़ूब यावर
9355
शहर-ए-सुख़नमें ऐसा क़ुछ क़र,
इज़्ज़त बन ज़ाए ;
सब क़ुछ मिट्टी हो ज़ाता हैं,
इज़्ज़त रहती हैं ll
अमज़द इस्लाम अमज़द