8871
क़ाबा सौ बार,
वो ग़या तो क़्या...
ज़िसने याँ एक़ दिलमें,
राह न क़ी.......
8872दैरसे क़ाबा ग़ए,क़ाबासे माबदग़ाहमें...ख़ाक़ भी पाया नहीं,दैर-ओ-हरम क़ी राहमें.......मिस्कीन शाह
8873
ऐ शहर-ए-सितम,
छोड़क़े ज़ाते हुए लोग़ो,
अब राहमें क़ोई भी,
मदीना नहीं आता.......
अज़हर अदीब
8874मस्ज़िदक़ी सर-ए-राह,बिना डाल न ज़ाहिद...इस रोक़से होनेक़े,नहीं क़ू-ए-बुताँ बंद.......मुबारक़ अज़ीमाबादी
8875
अपने लिए अब एक़ ही,
राह नज़ात हैं...
हर ज़ुल्मक़ो रज़ा-ए-ख़ुदा,
क़ह लिया क़रो.......
क़तील शिफ़ाई