7 September 2019

4696 - 4700 उम्र वाक़िफ़ तकलीफ़ वक्त राय फ़िक्र बेशक पहचान शायरी


4696
ग़ुज़री तमाम उम्र,
उसी शहरमें जहाँ
वाक़िफ़ सभी थे,
कोई पहचानता था...!

4697
हमें कोई ना पहचान पाया...
कुछ अंधे थे,
कुछ अंधेरोंमें थे...!

4698
चेहरा देखकर इंसान,
पहचाननेकी कला थी मुझमें,
तकलीफ़ तो तब हुई,
जब इन्सानोंके पास चेहरे बहुत थे...।

4699
तू छोड़ दे कोशिशें इन्सानोंको पहचाननेकी,
यहाँ जरुरतोंके हिसाबसे सब नकाब बदलते हैं;
मेरे बारेमें कोई राय मत बनाना गालिब,
मेरा वक्त भी बदलेगा, और तेरी राय भी...

4700
तारीफ़ करनेवाले बेशक
आपको पहचानते होंगे,
मगर फ़िक्र करने वालोको
आपको ही पहचानना होगा!

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