5736
बैठाही रहा सुब्हसे,
मैं धूप ढलेतक...
सायाही समझती रही,
दीवार मुझे भी.......
शहज़ाद अहमद
5737
धूप ही धूप
थी,
इसके मुखपर;
रूप ही रूप,
हवामें उतरा l
नासिर शहज़ाद
5738
मयस्सर फिर न
होगा,
चिलचिलाती
धूप में चलना...
यहींके हो रहोगे,
साएमें इक पल
अगर बैठे...
शहज़ाद अहमद
5739
सुना हैं धूपको,
घर लौटने की जल्दी
हैं;
वो आज वक़्तसे
पहलेही,
शाम कर देगी.......
सदार आसिफ़
5740
तमाम लोग इसी
हसरतमें,
धूप धूप जले...
कभी तो साया
घनेरे,
शजरसे निकलेगा...
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
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