1476
हर रात जान-बुझकर रखता हूँ
दरवाजा खुला . . . !
शायद कोई लूटेरा,
मेरा गम भी लूट ले !!!
1477
जीनी थी जो तेरे साथ, अभी वो शाम बाकि है,
पीना था जो तेरी आँखों से, अभी वो जाम बाकि है,
वादा किया था हमने जो, तुझको भुला के जीने का,
खुद को मिटाने का, अभी वो
काम बाकी है !
1478
मत पूछो शिशे को उसकी...
टूट जाने कि वज़ह,
उसने भी किसी पत्थर को,
अपना समझा होगा...!
1479
सौ दुशमन बनाए हमने,
किसी ने कुछ ना कहा,
एक को हमसफर क्या बनाया,
सौ उँगलियाँ उठ गई.......
1480
बहुत शौक था...
सबको जोड़ के रखने का जफर।
होश तब आया जब,
अपने वजूद के टुकड़े देखे।