6061
लहूसे मैंने लिखा था,
जो कुछ दीवार-ए-ज़िंदाँ पर...
वो बिजली बनके चमका,
दामन-ए-सुब्ह-ए-गुलिस्ताँ पर...
सीमाब अकबराबादी
6062
क़ाँटे किसीके हकमें,
किसी को गुलो-समर...
क्या खूब एहतिमामे-गुलिस्ताँ हैं,
आज कल.......
जिगर मुरादाबादी
6063
खिजाँ आयेगी तो,
आयेगी ढलकर बहारोंमें...
कुछ इस अन्दाजसे,
नज्मे-गुलिस्ताँ कर रहा हूँ मैं...!
शफक टौंकी
6064
यूँ मुस्कुराए जान सी,
कलियोंमें
पड़ गई...
यूँ लब-कुशा
हुए कि,
गुलिस्ताँ
बना दिया...
असग़र गोंडवी
6065
एक ही उल्लू काफी हैं,
बर्बाद गुलिस्ताँ करनेको;
हर शाख पै उल्लू बैठा हैं,
अंजामे-गुलिस्ताँ क्या होगा...
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