6031
दूर तक छाए थे ,
और कहीं साया न था...
इस तरह बरसातका मौसम,
कभी आया न था...
क़तील शिफ़ाई
6032
वो अब क्या
ख़ाक आए,
हाए क़िस्मतमें तरसना था...
तुझे ऐ अब्र-ए-रहमत,
आजही इतना बरसना
था...?
कैफ़ी हैदराबादी
6033
अब भी बरसातकी रातोंमें,
बदन टूटता हैं;
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें,
अंगड़ाई की...
परवीन शाकिर
6034
घटा छाती, बहार
आती,
तुम्हारा
तज़किरा होता...!
फिर उसके बाद
गुल खिलते कि,
ज़ख़्मे-दिल हरा
होता.......
6035
रहने दो कि अब तुमभी,
मुझे पढ़ न सकोगे...
बरसातमें काग़ज़की तरह,
भीग गया हूँ
मैं.......
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