16 June 2020

6031 - 6035 दिल ज़ख़्म काग़ज़ बहार ख़्वाहिशें क़िस्मत मौसम बादल बरसात शायरी


6031
दूर तक छाए थे ,
और कहीं साया था...
इस तरह बरसातका मौसम,
कभी आया था...
                          क़तील शिफ़ाई

6032
वो अब क्या ख़ाक आए,
हाए क़िस्मतमें तरसना था...
तुझे ऐ अब्र-ए-रहमत,
आजही इतना बरसना था...?
कैफ़ी हैदराबादी

6033
अब भी बरसातकी रातोंमें,
बदन टूटता हैं;
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें,
अंगड़ाई की...
                                परवीन शाकिर

6034
घटा छाती, बहार आती,
तुम्हारा तज़किरा होता...!
फिर उसके बाद गुल खिलते कि,
ज़ख़्मे-दिल हरा होता.......

6035
रहने दो कि अब तुमभी,
मुझे पढ़ सकोगे...
बरसातमें काग़ज़की तरह,
भीग गया हूँ मैं.......

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