निक़ाह और ज़नाज़ा.......
"फर्क़ सिर्फ इतना सा था
तेरी "डोली" उठी,
मेरी "मय्यत" उठी,
"फुल" तुझपर भी बरसे,
"फुल" मुझपर भी बरसे,
फर्क़ सिर्फ इतना सा था,
तू "सज़" गयी,
मुझे "सज़ाया" गया ....
तू भी "घर" क़ो चली,
मै भी "घर" क़ो चला
फर्क़ सिर्फ इतना सा था,
तू "उठ" क़े गयी,
मुझे "उठाया" गया......
"महफ़िल" वहॉं भी थी,
"लोग" यहॉं भी थे,
फर्क़ सिर्फ इतना सा था
"उनक़ा हँसना"
वहॉं,
"इनक़ा रोना"
यहॉं......
"क़ाझी" उधर भी था,
"मौलवी" इधर भी था,
दो बोल तेरे पढे,
दो बोल मेरे पढे,
तेरा "निक़ाह" पढा,
मेरा "ज़नाज़ा" पढा,
फर्क़ सिर्फ इतना सा था,
तुझे "अपनाया" गया,
मुझे "दफनाया" गया.......