6256
दिन रात मय-कदेमें,
गुज़रती थी ज़िंदगी...
अख़्तर वो बे-ख़ुदीके,
ज़माने किधर गए...
अख़्तर शीरानी
6257
तेरी मस्जिदमें वाइज़,
ख़ास हैं औक़ात
रहमतके...
हमारे मय-कदेमें
रात दिन,
रहमत बरसती हैं.......
अमीर मीनाई
6258
मय-कदेकी तरफ़,
चला ज़ाहिद...
सुब्हका भूला,
शाम घर आया...
कलीम आजिज़
6259
न तुम होशमें
हो,
न हम होशमें
हैं...
चलो मय-कदेमें,
वहीं बात होगी...!
बशीर बद्र
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कर्जकी पीते थे मय,
लेकिन समझते थे कि हाँ...
रंग लायेगी हमारी,
फाकामस्ती एक दिन.......
मिर्जा गालिब